(1)
जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान।
मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।।
अर्थ:
साधु आदमी की जाति न पूछिए उससे पूछना है तो ज्ञान की बातें पूछिए.
मोलभाव तलवार का करो और मयान को पड़ी रहने दो.
भाव:
कबीर दास जी कहते है, साधु आदमी की जाति पूछ कर तुम क्या करोगे उससे तुमको कोई फायदा नहीं मिलने वाला है, वह इन बातों से परे है, जात पांत के चक्कर में न पड़कर तुम साधु से ज्ञान की बात जान लो तो तुम्हारा कल्याण हो जाये, ऐसा इसलिए क्योंकि मोल भाव तलवार का किया जाता है न कि उसकी मयान का जो कि तलवार का खोल मात्र है.
शब्दार्थ:
◇ तरवार – तलवार.
◇ म्यान – तलवार का खोल.
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(2)
दोस पराए देखि करि, चला हसन्त हसन्त।
अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत।।
अर्थ:
कबीर दास जी कहते है की इंसान दूसरों की बुराइयां देख कर हंसता है और खुश होकर चल देता है.
लेकिन उसी इंसान का ध्यान अपनी उन बुराइयों की तरफ नहीं जाता है जिनकी शुरुवात और अंत का कोई पता ही नहीं होता.
भाव:
कबीर दास जी कहते है कि मानव का ये स्वभाव है कि वह दूसरों की बुराइयां देख कर आनंदित होता है और आनंद ले ले कर वह दूसरों की बुराइयों का बखान चलते फिरते करता रहता है, लेकिन उसका ध्यान कभी अपनी हज़ारों बुराइयों की तरफ नहीं जाता है जिनका न कोई हिसाब किताब ही नहीं होता है.
शब्दार्थ:
◇ दोस — दोष.
◇ पराए — पराया.
◇ हसन्त हसन्त — हंसता हुआ.
◇ आवई — आए.
◇ आदि — शुरूवात.
◇ अंत — खात्मा.
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(3)
जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ।
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।।
अर्थ:
जिसको खोजा उसे पाया, लेकिन बहुत गहराई में पानी में डूबा हुआ पाया.
मैं बेचारा डूबने से डरकर किनारे ही बैठा रहा और मुझे कुछ भी मिला.
भाव:
कबीर दास जी कहते है कि आदमी यदि प्रयास करे कोशिश करे तो उसे वह वस्तु मिल ही जाती है जिसकी उसे तलाश होती है, जिस तरह से गोताखोर को खोजने पर गहरे पानी से वह वस्तु मिल ही जाती है जिसकी वह इच्छा करता है.
लेकिन कुछ बेचारे लोग डूबने के डर से नदी के किनारे ही बैठे रहते है और उन्हें कुछ भी नहीं मिलता है, अर्थात साहस और हिम्मत के साथ कोशिश करने से हमें फल अवश्य मिलता है.
शब्दार्थ:
◇ जिन — जिनको, जिसको.
◇ खोजा — ढूंढा.
◇ तिन — उनको, उसको.
◇ पाइया — पाया.
◇ पैठ — धंसा हुआ, पहुंचा हुआ.
◇ बपुरा — बेचारा.
◇ बूडन — डूबना.
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(4)
अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप।
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।।
अर्थ:
बहुत अधिक बोलना भी ठीक नहीं होता है और न ही बहुत अधिक चुप रहना ही अच्छा होता है.
जिस तरह से बहुत अधिक बारिश भी ठीक नहीं होती और न ही बहुत अधिक धूप ही अच्छी होती है.
भाव:
कबीर दास जी कहते है कि व्यक्ति को अपनी बोलचाल में संयम का परिचय देना चाहिए, न ही उसे बहुत अधिक बोलना चाहिए और न ही बहुत अधिक चुप रहना चाहिए, जिस प्रकार बहुत अधिक बारिश भी हानिकारक होती है और बहुत अधिक सूखा या धूप भी हानिकारक होती है उसी प्रकार ये दोनों बातें भी घातक होती है अर्थात् हमें उचित समय पर उतना ही बोलना चाहिए जितना आवश्यक हो और जहां बोलने की आवश्यकता हो वहां चुप भी नहीं रहना चाहिए.
शब्दार्थ:
◇ अति — अधिक.
◇ भला — अच्छा.
◇ भली — अच्छी.
◇ चूप — खामोशी.
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(5)
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय।
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।।
अर्थ:
जब मैं बुराई ढूंढने निकला तो मुझे कोई बुरा न मिला.
लेकिन जब मैंने अपने अंदर देखा तो मुझसे बुरा कोई न मिला.
भाव:
कबीर दास जी कहते है कि आदमी दूसरों की बुराइयां ढूंढता रहता है और दूसरों की कमियां ढूंढने में इतना व्यस्त रहता है कि उसे अपने अंदर झांकने का मौका ही नहीं मिलता है, परन्तु मैंने जब सच्चे मन से देखना शुरू किया तो मुझे दूसरों के अंदर कोई बुराई नहीं मिली और इसके विपरीत जब अपने अंदर देखा तो पता लगा कि मुझसे बुरा तो कोई है ही नहीं.
शब्दार्थ:
◇ देखन — देखने.
◇ मिलिया — मिला.
◇ कोय — कोई.
◇ आपना — अपना.
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(6)
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।।
अर्थ:
संसार में मोटी मोटी किताबें पढ़कर कोई ज्ञानी नहीं होता है लेकिन अगर कोई प्रेम का थोड़ा सा भी पाठ कर ले तो वहीं असल ज्ञानी है.
भाव:
कबीर दास जी कहते है कि संसार में लोग बहुत ज्ञान अर्जित करने के लिए मोटी मोटी किताबें पढ़ते हैं और ज्ञानी होने का दावा करते है लेकिन ऐसा नहीं है मोटी मोटी पुस्तकें पढ़ने से कोई ज्ञानी नहीं हो जाता है अगर दूसरों के साथ उसका व्यवहार अच्छा नहीं है और अगर दूसरों को वह प्रेम की निगाह से नहीं देखता है, हां इसके विपरीत अगर कोई सब के प्रति प्रेम भाव रखता है और प्रेम का ही व्यवहार करता है तो असल ज्ञानी वही है.
शब्दार्थ:
◇ पोथी — छोटी पुस्तक.
◇ पढ़ि पढ़ि — पढ़कर.
◇ जग — संसार.
◇ मुआ — में.
◇ भया — हुआ.
◇ कोय — कोई.
◇ आखर — अक्षर.
◇ सो — वह.
◇ होय — होना.
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(7)
साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय,
सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय।
अर्थ:
साधु आदमी को इस तरह होना चाहिए जैसे कि सूप का स्वभाव होता है.
सूप काम की चीज़ बचा लेता है और बेकार की चीज़ उड़ा कर अलग कर देता है.
भाव:
कबीर दास जी कहते कि एक साधु आदमी को अपना स्वभाव सूप की तरह रखना चाहिए सूप का एक खास स्वभाव होता है कि जब उसमें अनाज उछला जाता है तो काम की वस्तुओं को रखता है और बेकार की वस्तुओं को उड़ा कर अलग कर देता है, इसी तरह मानव को भी बेकार की वस्तुओं पर ध्यान न देना चाहिए और ही बेकार के पचड़े में पड़ना चाहिए और अपने काम से काम रखना चाहिए.
शब्दार्थ:
◇ सुभाय — स्वभाव.
◇ सार-सार — ठोस, महत्वपूर्ण वस्तु.
◇ गहि — ग्रहण करना.
◇ थोथा — खोखला, बेकार वस्तु.
◇ देई — देना.
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।।समाप्त।।