Thursday, 3 May 2018

रहीम के दोहे — 01

(1)
रहिमन धागा  प्रेम  का  मत तोरउ चटकाय।
टूटे से फिर से ना जुरे, जुड़े गांठि परि जाय।।

अर्थ:
रहीम दो हृदयों का प्रेम एक धागे की तरह होता है जिसे कभी मत तोड़ो.
ये टूट कर दुबारा नहीं जुड़ता और अगर जुड़ भी जाता है तो तो उसमें गांठ पड़ जाती है.

भाव:
रहीम दास जी कहते है कि अगर किसी से आपका स्नेह पूर्ण संबंध है तो उस संबंध को और आपस के भरोसे को कभी न तोड़िए क्यों कि एक बार अगर ये संबंध टूट जाता है तो आसानी से वापस नहीं जुड़ता और अगर जुड़ भी जाता है तो उसमें गांठ पड़ जाती है अर्थात पहले वाली बात और भरोसा नहीं रहता.

शब्दार्थ:
   ◇ तोरउ — तोड़िए.
   ◇ चटकाय — चटकाकर.
   ◇ जुरे — जुड़े.
   ◇ गांठि — गांठ.
   ◇ परि जाय — पड़ जाए.
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(2)
जो रहीम उत्तम प्रकृति का करि सकत कुसंग।
चंदन  विष  व्यापत  नहीं  लिपटे रहत भुजंग।।

अर्थ:
जो व्यक्ति अच्छे चरित्र का है बुरी संगत उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकती.
जिस प्रकार चंदन के पेड़ से विषैले सर्प लिपटे रहते हैं लेकिन चंदन पर उनका असर कुछ नहीं होता है.

भाव:
रहीम दास जी कहते है कि जो लोग वास्तव में चरित्रवान होते है वे हमेशा ऐसे ही रहते हैं अगर उनकी संगत चरित्रहीन बुरे लोगो के साथ होती है तब भी उनके चरित्र पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता है. ऐसे लोगो की तुलना चंदन के पेड़ से की जा सकती है जिस पर बहुत से सांप लिपटे रहते हैं परन्तु फिर भी चंदन पर उनके के विष का कुछ असर नहीं होता है.

शब्दार्थ:
   ◇ उत्तम — अच्छा, अच्छी.
   ◇ प्रकृति — स्वभाव.
   ◇ का — क्या.
   ◇ करि सकत — कर सकते हैं.
   ◇ कुसंग — बुरी संगत.
   ◇ व्यापत — फैलता है.
   ◇ भुजंग — सांप.
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(3)
रहिमन देख बड़ेन को लघु न दीजिये डारि।
जहाँ  काम  आवे  सुई  कहा  करै  तरवारि।।

अर्थ:
किसी बड़े को देखकर छोटे का तिरस्कार मत कीजिए.
क्यों कि जहां पर सुई का काम होता है वहां तलवार काम नहीं आती.

भाव:
रहीम दास जी कहते है कि प्रायः देखा जाता है कि किसी का सम्बन्ध जब बड़े लोगो से हो जाता है तो वह उन लोगो की उपेक्षा करने लगता जिनको वह छोटा या कमतर समझता है. ऐसा नहीं करना चाहिए क्यों कि जो काम ये छोटे लोग कर सकते हैं वह बड़े लोग नहीं कर सकते हैं, जहां वह साथ दे सकते हैं बड़े लोग नहीं दे सकते है. यह समझना चाहिए कि हर वस्तु और हर व्यक्ति का अपना महत्व है, अपना स्थान है, कोई किसी का स्थान नहीं ले सकता. अगर कहीं पर सुई का का काम है तो तलवार उस सुई की जगह नहीं ले सकती.

शब्दार्थ:
   ◇ बड़ेन — बड़ी वस्तु या लोग.
   ◇ लघु — छोटी वस्तु या लोग.
   ◇ डारि — डाल देना, हटा देना.
   ◇ कहा — क्या.
   ◇ करै — करे.
   ◇ तरवारि — तलवार.
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(4)
बिगरी बात बने नहीं, लाख करो किन कोय।
रहिमन फाटे दूध को, मथे न माखन होय।।

अर्थ:
कोई बात बिगड़ने के बाद बन नहीं पाती है चाहे आप लाख जतन और उपाय कर लीजिए.
रहीम, क्यों की फटे हुए दूध को मथने से उससे मक्खन नहीं निकल पाता है.

भाव:
रहीम दास जी कहते है कि जहां तक हो सके हमें किसी से बिगाड़ नहीं पैदा करना चाहिए क्योंकि एक बार बात बिगड़ जाने के बाद बन नहीं पाती है. जिस प्रकार दूध अगर फट जाता है फिर उसको आप चाहे जितना मथेंगे उससे मक्खन की प्राप्ति नहीं हो सकती, इसी प्रकार  जब तक बात बनी है आप दूसरों से अच्छे व्यवहार की आशा कर सकते हैं परन्तु बात बिगड़ने के बाद दूसरों से अनुकूल व्यवहार की अपेक्षा नहीं कर सकते.

शब्दार्थ:
   ◇ बिगरी — बिगड़ी.
   ◇ किन कोय — उपाय.
   ◇ फाटे — फटे.
   ◇ मथे — मथने से.
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(5)
समय पाय फल होत है, समय पाय झरी जात।
सदा रहे नहीं एक सी, का रहीम पछितात।।

अर्थ:
समय आने पर ही फल आते हैं और समय आने पर ही झड़ जाते हैं.
समय कभी एक सा नहीं रहता फिर रहीम पछतावा किस लिए?

भाव:
रहीम दास जी कहते हैं कि हर काम उचित समय आने पर ही होता है, जब समय आता है तो पेड़ों पर अपने आप फल आ जाते हैं और समय आने पर चले भी जाते हैं. हमें ये ध्यान रखना चाहिए कि समय कभी एक सा नहीं रहता इसीलिए पछताने से कोई फायदा नहीं परेशान होने से कोई फायदा नहीं, जो काम होना है उचित समय आने पर हो ही जाएगा.

शब्दार्थ:
   ◇ समय पाय — समय आने पर.
   ◇ झरी जात — झड़ जाते हैं.
   ◇ पछितात — पछताते हो.
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(6)
वे रहीम नर धन्य हैं, पर उपकारी अंग।
बांटन वारे को लगे, ज्यों मेंहदी को रंग।।

अर्थ:
रहीम वे लोग बहुत अच्छे हैं जो अपने शरीर और अंग प्रत्यंग को दूसरों की भलाई के लिए काम में लाते हैं.
अच्छाई बांटने से बांटने वाले को भी अच्छाई मिलती है जैसे मेंहदी दूसरे को रंग बांट कर खुद भी रंगीन हो जाती है.

भाव:
रहीम दास जी कहते हैं कि मानव जाति का जन्म दूसरों कि भलाई के लिए हुआ है अतः हमें सदैव पर हित के लिए काम करते रहना चाहिए, जो लोग दूसरों के भले के लिए कष्ट उठाते हैं ऐसे लोग धन्य हैं क्यों जिस प्रकार मेंहदी दूसरे को रंग देकर खुद लाल हो जाती है उसी प्रकार दूसरों का भला करने वाले का खुद भी भला होता है. संसार में उसे मन कि शांति मिलती है और मृत्यु उपरांत उसे स्वर्ग की प्राप्ति होती है.

शब्दार्थ:
   ◇ नर — मनुष्य.
   ◇ धन्य हैं — श्रेष्ठ हैं, अच्छे हैं.
   ◇ पर उपकारी — दूसरों का भला करने वाले.
   ◇ अंग — हाथ पैर आदि अंग.
   ◇ बांटन वारे — बांटने वाले को.
   ◇ ज्यों — जैसे.
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(7)

रूठे सुजन मनाइये जो रूठे सौ बार।
रहिमन फिर फिर पोइये टूटे मुक्ताहार।।

अर्थ:
किसी बड़े को देखकर छोटे का तिरस्कार मत कीजिए.
क्यों कि जहां पर सुई का काम होता है वहां तलवार काम नहीं आती.

भाव:
रहीम कहते हैं अगर आपका कोई खास सखा अथवा रिश्तेदार आपसे नाराज हो गया हैं तो उसे मनाना चाहिए अगर वो सो बार रूठे तो सो बार मनाना चाहिए क्यूंकि अगर कोई मोती की माला टूट जाती हैं तो सभी मोतियों को एकत्र कर उसे वापस धागे में पिरोया जाता हैं.

शब्दार्थ:
   ◇ सुजन — सज्जन व्यक्ति.
   ◇ पोइये — पिरोइए.
   ◇ मुक्ताहार — मोतियों का हार.
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                       ।।समाप्त।।

Thursday, 22 March 2018

कबीर के दोहे — 02

(1)
निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटी छवाय।
बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।।

अर्थ :
कबीर दास जी कहते हैं, जो आपकी बुराई करे उसे अपने पास ही रखिए, बल्कि उसके रहने के लिए अपने घर के आंगन में ही झोपड़ी बना दीजिए.
       वह तो बिना साबुन और पानी के हमारी कमियां बता कर हमारे स्वभाव की सफाई करता है.

शब्दार्थ:
◇निंदक= निंदा(बुराई) करने वाला.
◇नियरे= पास, करीब.
◇कुटी= झोपड़ी.
◇छवाय= छाना, डालना.
◇निर्मल= शुद्ध, साफ.
◇सुभाय= स्वभाव.
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(2)
कबीरा खड़ा बाज़ार में, मांगे सबकी खैर।
ना  काहू  स  दोस्ती,  न   काहू   से   बैर।।

अर्थ :
कबीर दास जी कहते हैं वह एक साधु हैं, वह बाज़ार में खड़े हैं और सबकी सबका भला चाहते हैं.
      उनकी तो किसी से दोस्ती है, और न किसी से दुश्मनी अर्थात् वह तो सबका भला चाहते है.

शब्दार्थ:
◇ख़ैर= भलाई.
◇काहू= किसी से.
◇बैर= दुश्मनी.
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(3)
दुर्लभ  मानुष  जन्म  है,  देह  न  बारम्बार।
तरुवर ज्यों पत्ता झड़े, बहुरि न लागे डार।।

अर्थ :
कबीर दास जी कहते हैं कि मनुष्य का जन्म बहुत दुर्लभ है अर्थात् हम बहुत सौभाग्यशाली हैं जो हम मनुष्य योनि में जन्मे हैं, अब हमें व्यर्थ के कामों में पड़कर इसे बेकार नहीं करना चाहिए.
      क्योंकि जिस प्रकार पेड़ से पत्ता गिरने के बाद दुबारा नहीं जुड़ सकता उसी प्रकार एक दिन मृत्यु आ जाने के बाद फिर कुछ नहीं हो सकता .

शब्दार्थ:
◇दुर्लभ= बहुत कठिनाई से मिलने वाला.
◇मानुष= मनुष्य, इंसान.
◇तरुवर= पेड़.
◇बहुरि= दुबारा, फिर.
◇लागे= लगे, लगना.
◇डार= डाल, शाखा.
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(4)
बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि।
हिये तराजू तौलि के, तब मुख बाहर आनि।।

अर्थ :
कबीर दास जी कहते हैं कि सही बोली बोलना हमारे लिए बहुत महत्त्व रखता है,और ये बात वह लोग बहुत अच्छी तरह जानते है जो सही बोली बोलकर लाभ उठाते हैं.
      कुछ भी बोलने से पहले हमें उसे पहले अपने दिल में ही तौल लेना चाहिए अर्थात् सोच समझ लेना चाहिए कि हम जो बोलने जा रहे हैं वह सही है या नहीं तब ही बोलना चाहिए .

शब्दार्थ:
◇जानि= जानना, समझना.
◇हिये= हृदय, दिल.
◇तौलि= तौलना, समझना.
◇मुख= मुंह.
◇आनि= आना.
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(5)
कबीरा तेरी झोपडी, गल कटीयन के पास।
जैसी करनी वैसे भरनी, तू क्यों भया उदास।।

अर्थ :
कबीर दास जी कहते हैं कि उनकी झोपड़ी कसाइयों के पास हैं और वह जीव हत्या से बहुत दुखी है.
      लेकिन फिर उनको ज्ञान प्राप्त होता है कि जो जैसा करेगा वैसा भरेगा ईश्वर सबके कर्म और कुकर्म अनुसार ही पुरुस्कार देगा और दंडित करेगा, इसके लिए उन्हें परेशान होने की ज़रूरत नहीं है और न ही उदास होने की.

शब्दार्थ:
◇गल कटीयन= गला काटने वाले, कसाई.
◇भया= होना.
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(6)
बकरी पाती खात है ताकी काढ़ी खाल।
जे नर बकरी खात हैं, ताको कौन हवाल।।

अर्थ :
कबीर दास जी कहते हैं कि बकरी एक निर्दोष जीव है जो किसी को नुक़सान नहीं पहुंचती है तब भी उसकी खाल निकाली जाती है.
      अब ये सोचने की बात है कि जो लोग बकरी का भक्षण करते हैं अर्थात् उसका मांस खाते है उनका कितना बुरा हाल होगा यह तो ईश्वर ही बेहतर जनता है.

शब्दार्थ:
◇पाती= पत्ती.
◇खात= खाना.
◇ताकी= उसकी.
◇काढ़ी= खींचना.
◇जे= जो.
◇नर= मनुष्य, इंसान.
◇ताको= उसका.
◇हवाल= हाल.
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(7)
करता था तो क्यूं रहया, जब करि क्यूं पछिताय।
बोये पेड़ बबूल का, अम्ब कहाँ ते खाय॥

अर्थ :
कबीर दास जी कहते हैं कि जब तू गलत काम कर रहा था तो तब तूने क्यों न सोचा कि ये गलत है, तब तू क्यों गलत काम करता रहा, और कर चुकने के बाद अब जब तुझको ग़लत कामों का फल भुगतना पड़ रहा है तो अब तू क्यों पछता रहा है?
       जिस तरह बबूल का पेड़ बोने पर उससे तुझे कांटें ही मिल सकते हैं, आम खाने को नहीं मिल सकते उसी तरह बुरे कर्मों का नतीजा भी बुरा ही होता है.

शब्दार्थ:
◇क्यूं= क्यों.
◇रहया= रहा, रहना.
◇करि= कर कर, करने के बाद.
◇पछिताय= पछताना, पश्चाताप करना.
◇अम्ब= आम.
◇ते= से.
◇खाय= खाना, खाने के लिए.
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Saturday, 16 September 2017

कबीर के दोहे — 01

(1)
जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान।
मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।।

अर्थ:
साधु आदमी की जाति न पूछिए उससे पूछना है तो ज्ञान की बातें पूछिए.
मोलभाव तलवार का करो और मयान को पड़ी रहने दो.

भाव:
कबीर दास जी कहते है, साधु आदमी की  जाति पूछ कर तुम क्या करोगे उससे तुमको कोई फायदा नहीं मिलने वाला है, वह इन बातों से परे है, जात पांत के चक्कर में न पड़कर तुम साधु से ज्ञान की बात जान लो तो तुम्हारा कल्याण हो जाये, ऐसा इसलिए क्योंकि मोल भाव तलवार का किया जाता है न कि उसकी मयान का जो कि तलवार का खोल मात्र है.

शब्दार्थ:
     ◇ तरवार – तलवार.
     ◇ म्यान – तलवार का खोल.
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(2)
दोस पराए देखि करि, चला हसन्त हसन्त।
अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत।।

अर्थ:
कबीर दास जी कहते है  की इंसान दूसरों की बुराइयां देख कर हंसता है और खुश होकर चल देता है.
     लेकिन उसी इंसान का ध्यान अपनी उन बुराइयों की तरफ नहीं जाता है जिनकी शुरुवात और अंत का कोई पता ही नहीं होता.

भाव:
कबीर दास जी कहते है कि मानव का ये स्वभाव है कि वह दूसरों की बुराइयां देख कर आनंदित होता है और आनंद ले ले कर वह दूसरों की बुराइयों का बखान चलते फिरते करता रहता है, लेकिन उसका ध्यान कभी अपनी हज़ारों बुराइयों की तरफ नहीं जाता है जिनका न कोई हिसाब किताब ही नहीं होता है.

शब्दार्थ:
     ◇ दोस — दोष.
     ◇ पराए — पराया.
     ◇ हसन्त हसन्त — हंसता हुआ.
     ◇ आवई — आए.
     ◇ आदि — शुरूवात.
     ◇ अंत — खात्मा.
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(3)
जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ।
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।।

अर्थ:
जिसको खोजा उसे पाया, लेकिन बहुत गहराई में पानी में डूबा हुआ पाया.
मैं बेचारा डूबने से डरकर किनारे ही बैठा रहा और मुझे कुछ भी मिला.

भाव:
कबीर दास जी कहते है कि आदमी यदि प्रयास करे कोशिश करे तो उसे वह वस्तु मिल ही जाती है जिसकी उसे तलाश होती है, जिस तरह से गोताखोर को खोजने पर गहरे पानी से वह वस्तु मिल ही जाती है जिसकी वह इच्छा करता है.
     लेकिन कुछ बेचारे लोग डूबने के डर से नदी के किनारे ही बैठे रहते है और उन्हें कुछ भी नहीं मिलता है, अर्थात साहस और हिम्मत के साथ कोशिश करने से हमें फल अवश्य मिलता है.

शब्दार्थ:
     ◇ जिन — जिनको, जिसको.
     ◇ खोजा — ढूंढा.
     ◇ तिन — उनको, उसको.
     ◇ पाइया — पाया.
     ◇ पैठ — धंसा हुआ, पहुंचा हुआ.
     ◇ बपुरा — बेचारा.
     ◇ बूडन — डूबना.
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(4)
अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप।
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।।

अर्थ:
बहुत अधिक बोलना भी ठीक नहीं होता है और न ही बहुत अधिक चुप रहना ही अच्छा होता है.
     जिस तरह से बहुत अधिक बारिश भी ठीक नहीं होती और न ही बहुत अधिक धूप ही अच्छी होती है.

भाव:
कबीर दास जी कहते है कि व्यक्ति को अपनी बोलचाल में संयम का परिचय देना चाहिए, न ही उसे बहुत अधिक बोलना चाहिए और न ही बहुत अधिक चुप रहना चाहिए, जिस प्रकार बहुत अधिक बारिश भी हानिकारक होती है और बहुत अधिक सूखा या धूप भी हानिकारक होती है उसी प्रकार ये दोनों बातें भी घातक होती है अर्थात् हमें उचित समय पर उतना ही बोलना चाहिए जितना आवश्यक हो और जहां बोलने की आवश्यकता हो वहां चुप भी नहीं रहना चाहिए.

शब्दार्थ:
     ◇ अति — अधिक.
     ◇ भला — अच्छा.
     ◇ भली — अच्छी.
     ◇ चूप — खामोशी.
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(5)
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय।
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।।

अर्थ:
जब मैं बुराई ढूंढने निकला तो मुझे कोई बुरा न मिला.
लेकिन जब मैंने अपने अंदर देखा तो मुझसे बुरा कोई न मिला.

भाव:
कबीर दास जी कहते है कि आदमी दूसरों की बुराइयां ढूंढता रहता है और दूसरों की कमियां ढूंढने में इतना व्यस्त रहता है कि उसे अपने अंदर झांकने का मौका ही नहीं मिलता है, परन्तु मैंने जब सच्चे मन से देखना शुरू किया तो मुझे दूसरों के अंदर कोई बुराई नहीं मिली और इसके विपरीत जब अपने अंदर देखा तो पता लगा कि मुझसे बुरा तो कोई है ही नहीं.

शब्दार्थ:
     ◇ देखन — देखने.
     ◇ मिलिया — मिला.
     ◇ कोय — कोई.
     ◇ आपना — अपना.
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(6)
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई  आखर  प्रेम का, पढ़े सो  पंडित  होय।

अर्थ:
संसार में मोटी मोटी किताबें पढ़कर कोई ज्ञानी नहीं होता है लेकिन अगर कोई प्रेम का थोड़ा सा भी पाठ कर ले तो वहीं असल ज्ञानी है.

भाव:
कबीर दास जी कहते है कि संसार में लोग बहुत ज्ञान अर्जित करने के लिए मोटी मोटी किताबें पढ़ते हैं और ज्ञानी होने का दावा करते है लेकिन ऐसा नहीं है मोटी मोटी पुस्तकें पढ़ने से कोई ज्ञानी नहीं हो जाता है अगर दूसरों के साथ उसका व्यवहार अच्छा नहीं है और अगर दूसरों को वह प्रेम की निगाह से नहीं देखता है, हां इसके विपरीत अगर कोई सब के प्रति प्रेम भाव रखता है और प्रेम का ही व्यवहार करता है तो असल ज्ञानी वही है.

शब्दार्थ:
     ◇ पोथी — छोटी पुस्तक.
     ◇ पढ़ि पढ़ि — पढ़कर.
     ◇ जग — संसार.
     ◇ मुआ — में.
     ◇ भया — हुआ.
     ◇ कोय — कोई.
     ◇ आखर — अक्षर.
     ◇ सो — वह.
     ◇ होय — होना.
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(7)
साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय,
सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय।

अर्थ:
साधु आदमी को इस तरह होना चाहिए जैसे कि सूप का स्वभाव होता है.
     सूप काम की चीज़ बचा लेता है और बेकार की चीज़ उड़ा कर अलग कर देता है.

भाव:
कबीर दास जी कहते कि एक साधु आदमी को अपना स्वभाव सूप की तरह रखना चाहिए सूप का एक खास स्वभाव होता है कि जब उसमें अनाज उछला जाता है तो काम की वस्तुओं  को रखता है और बेकार की वस्तुओं को उड़ा कर अलग कर देता है, इसी तरह मानव को भी बेकार की वस्तुओं पर ध्यान न देना चाहिए और ही बेकार के पचड़े में पड़ना चाहिए और अपने काम से काम रखना चाहिए.

शब्दार्थ:
     ◇ सुभाय — स्वभाव.
     ◇ सार-सार — ठोस, महत्वपूर्ण वस्तु.
     ◇ गहि — ग्रहण करना.
     ◇ थोथा — खोखला, बेकार वस्तु.
     ◇ देई — देना.
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           ।।समाप्त।।